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Thursday, March 31, 2022

Rajasthan me Kisan Andolan

 किसान आंदोलन-Farmers Movement Information in Rajasthan

राजस्थान में किसान आंदोलन जागीरदारो द्वारा किसानों का आर्थिक शोषण के कारण राजस्थान के हर क्षेत्र में किसान आंदोलन प्रारंभ हुए राजस्थान में किसान आंदोलन  से संबंधित महत्वपूर्ण  सूचना का समावेश इस पोस्ट में किया गया है यह पोस्ट राजस्थान में किसान आंदोलन Rajasthan me Kisan Andolan से संबंधित आपके ज्ञान को बेहतर बनाने के लिए सहायक है

Rajasthan me Kisan Andolan
Rajasthan me Kisan Andolan


बिजौलिया किसान आंदोलन

बिजौलिया को प्राचीन काल में 'विजयावल्ली' के नाम से जाना जाता था। बिजौलिया व भैंसरोड़गढ़ के मध्य भाग को उपरमाल के नाम से जाना जाता है। बिजौलिया शिलालेख में ऊपरमाल के क्षेत्र को 'उत्तमाद्रि' कहा गया है। बिजौलिया ठिकाने की स्थापना अशोक परमार द्वारा की गई। अशोक परमार की खानवा युद्ध में वीरता से प्रसन्न होकर सांगा ने अशोक परमार को बिजौलिया उपरमाल की जागीर भेंट की। बिजौलिया भीलवाङा में 83 गांवों का समूह था जिसमें 84 प्रकार के कर लिए जाते थे।

प्रथम चरण:

1894ई. में राव गोविन्ददास की मृत्यु के बाद राव किशनसंह (कृष्ण सिंह) नया जागीरदार बना। इसके समय किसानों से 84 लाग ली जाती थी उपज का आधा,भाग लगान के रूप में एवं बिजौलिया की जनता से बैठ बेगार भी ली जाती थी। गिरधारीपुर गांव में 1897 ई. में गंगाराम धाकड़ के पिता के मृत्यभोज के अवसर पर किसानों ने सभा कर अपनी समस्या महाराज को अवगत कराने के लिए 'नानजी पटेल' व 'ठाकरी पटेल' को चुना गया। 

इन शिकायतों की जाँच के लिए महाराणा ने 'हामिद हुसैन' को जांच कराने के लिए भेजा। हामिद हुसैन ने किसानों की शिकायतों को सही बताया मगर महाराणा ने इस पर कोई कार्यवाही नहीं की। कृष्ण सिंह ने वर्ष 1903 में 'चंवरी कर' नाम से नई लागत लगा दी विरोधस्वरूप किसानों ने हल नहीं चलाए, जिससे जागीरदार को झुकना पड़ा और लगान भी 1/2 से घटाकर 2/5 कर दिया। वर्ष 1906 में नये जागीरदार पृथ्वीसिंह ने 'तलवार बंधाई' नाम से नयी लागत लगा दी। किसानों ने साधु सीताराम दास, फतहकरण चारण और ब्रह्मदेव के नेतृत्व में जागीरदार के इस कदम का विरोध किया। 1914 में पृथ्वीसिंह की मृत्यु पर मेवाड़ राज्य की ओर से अमरसिंह राणावत को प्रशासक नियुक्त किया गया। साध सीताराम दास के आग्रह पर 1915 ई. में विजयसिंह पथिक बिजौलिया किसान आंदोलन से जुड़े एवं आंदोलन में नवचेतना भर दी। वर्ष 1917 में विजयसिंह पथिक ने हरियाली अमावस्या के दिन 'उपरमाल पंच बोर्ड की स्थापना बैरीसाल गांव भीलवाड़ा में की। पथिक जी ने 'उपरमाल का डंका' नामक अखबार प्रकाशित किया। गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने समाचार पत्र 'प्रताप' से इस आंदोलन को देशव्यापी बना दिया। पथिक जी की प्रेरणा से माणिक्यलाल वर्मा ने ठिकाने की नौकरी छोड़ दी एवं इन्होने पंछीडा गीत लिखा। मुंशी प्रेमचंद जी ने इस आंदोलन की पृष्ठभूमि पर 'रंगभूमि' नामक नाटक लिखा। इस आंदोलन को शांत करने के लिए मेवाड़ सरकार ने बिन्दूलाल भट्टाचार्य, अमरसिंह व अफजल अली को एक तीन सदस्यीय आयोग किसानों की समस्याओं को सुनने के लिए भेजा। इस आयोग ने अनियमित लागतें हटाने व बेगार न लेने की सिफारिश की लेकिन मेवाड़ सरकार ने आयोग की सिफारिशों पर ध्यान नहीं दिया। पथिक जी ने 1919ई. में वर्धा से 'राजस्थान केसरी' और 1925ई. में अजमेर से प्रकाशित 'नवीन राजस्थान' समाचार पत्रों के माध्यम से बिजौलिया ठिकाने के अत्याचारों को उजागर किया। 

अंग्रेज सरकार ने A.G.G. हॉलैण्ड के नेतृत्व में एक समिति किसानों से वार्ता के लिए भेजी। किसान पंचायत की ओर से सरपंच मोतीलाल, नारायण पटेल, रामनारायण चौधरी व माणिक्यलाल वर्मा ने सरकारी समिति से वार्ता की। किसानों व सरकार के मध्य 1 फरवरी, 1922 को समझौता हो गया। जिसमें 35 लागतें समाप्त करने, तलवार बंधाई की राशि कम करने, बेगार न लेने व किसानो पर से मुकदमें हटा लेने की शर्ते थी। लेकिन ठिकाने ने इस समझौते की पालना नहीं की। 1927 ई. में विजयसिंह पथिक बिजौलिया आंदोलन से अलग हो गए। पथिक जी के पश्चात् नेतृत्व 'माणिक्यलाल वर्मा ने किया जिसमें जमनालाल बजाज एवं हरिभाऊ उपाध्याय ने सहायता की। 1914 में मेवाड़ का प्रधानमंत्री सर . विजय राधावाचार्य ने राजस्व विभाग के मंत्री डा. मोहनसिंह मेहता को समस्या का अंतिम रूप से समाधान करने बिजौलिया भेजा। 1941ई. में माणिक्यालाल वर्मा ने इस आंदोलन की मांगे मनवाकर बिजौलिया आंदोलन को समाप्त किया गया। बिजौलिया आंदोलन 1897 ई. से 1941 ई. तक 44 वर्षों तक चलने वाला भारत का सबसे पहला, सबसे बड़ा व पूर्णत: अहिंसक आंदोलन था। 

बेंगू किसान आंदोलन (वर्तमान चित्तौड़) 

बेंगू आंदोलन बेगार प्रथा से सर्वाधिक प्रभावित था यहाँ पर 25 प्रकार की लागत ली जाती थी। विजयसिंह पथिक, रामनारायण चौधरी व माणिक्यलाल वर्मा ने बेंगू के किसानों को संगठित किया।

शुरुआत:- 1921 में मैनाल के 'भैरुकुण्ड' नामक स्थान पर एकत्र किसानों ने सामंती अत्याचारों के विरुद्ध आंदोलन का निर्णय लिया। बेंगू किसान आंदोलन का नेतृत्व विजयसिंह पथिक के आग्रह पर रामनारायण चौधरी ने किया तथा इनकी पत्नी अंजना चौधरी ने महिपाजो पा नेतृत्व किया।

बेंगू राव अनुपसिंह ने आंदोलन को दमन द्वारा का प्रयास किया मगर अंत में विवश होकर राव अनुपसिंह ने किसानों से समझौता किया। यह मेवाड़ राज्य में किसानों से प्रथम समझौता था। मेवाड़ सरकार ने इस समझौते को अस्वीकार कर इसे 'बोल्शेविक समझौते ' की संज्ञा देते हुए रावत अनुपसिंह को उदयपुर में नजरबंद करवा दिया। ठिकाने पर मुंसरमात बैठा दी एंव लाला अमृतलाल को बेंगू का मुंसरिम नियुक्त कर दिया एवं सेटलमेंट कमिश्नर ट्रेन्च को किसानों की शिकायतों की जांच के लिए नियुक्त किया जिसने बेगार, लगान व लागतों को उचित ठहराया। ट्रेच के निर्णयों का विरोध करने के लिए किसान गोविन्दपुरा गांव में एकत्र हुए। 13 जुलाई,1923 को टेंच के आदेश पर किसानों पर गोलियां चला दी जिसमें रूपाजी व कृपाजी धाकड़ शहीद हो गए 1500 किसानों को गिरफ्तार किया गया।

आंदोलन के दबाव से बेगू में नया बंदोबस्त किया गया, 34 लागते समाप्त कर दी गई बंगार बंद कर दी गई जिससे आंदोलन समाप्त हो गया।

अलवर किसान आंदोलन - (नीमूचणा)

अलवर में 80 प्रतिशत भूमि खालसा थी जबकि 20% भूमि जागीरदारो के नियंत्रण में थी। अलवर में किसानों को खालसा क्षेत्रों में स्थायी भू-स्वामित्व के अधिकार प्राप्त थे, जिन्हें 'बिश्वेदार' कहा जाता था। 1876ई. में ब्रिटिश पत्रति पर अलवर में पहला भूमि बंदोबस्त किया गया। नीमूचणा गांव वर्तमान में अलवर जिले की बानसूर/बाणासुर तहसील में है। अलवर राज्य में राजपूत किसानों ने लगान वृद्धि के विरुद्ध 1924 ई. में आंदोलन किया। जनवरी,1925 में अलवर के राजपूतों ने दिल्ली में 'अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा' के अधिवेशन में भाग लिया और 'पुकार' नाम पुस्तिका में समस्याओं को प्रकाशित किया। 7 मई, 1925 को महाराजा जयसिंह ने किसानों की शिकायतों पर विचार करने हेतु आयोग का गठन किया। 13 मई,1925 को नीमूचणा गांव में किसानो की सभा पर कमाण्डर छज्जूसिंह ने गोलियां चलायी। छज्जूसिंह को राजस्थान का 'जरनल डायर' कहा जाता है। गांधी जी ने 'यंग इंडिया' पत्र में इसे दोहरी डायरी शाही कहा है। 'रियासत' नामक समाचार पत्र ने इसकी तुलना 'जलियावाला बाग हत्याकाण्ड' से की।

मेव किसान आंदोलन

अलवर में मेव किसान आंदोलन का नेतृत्व गुड़गाव के मेव नेता चौधरी यासीन खान द्वारा किया गया। मोहम्मद हादी ने 1932 ई. में 'अन्जूमन खादिम उल इस्लाम' नामक संस्था स्थापित कर मेव किसान आंदोलन को संगठित किया। अलवर शासक जयसिंह के शिकारगढ़ में रहने वाले जंगली जानवर व जंगली सुअर किसानो की फसल बर्बाद करते थे। जानवरों को मारने पर भी पाबंदी थी। अत: किसानों ने आंदोलन प्रारंभ किया। 1923-1924 ई. में लागू किया गया भूराजस्व बंदोबस्त मेव किसानों में अंसतोष उत्पन्न करने वाला था। मेव आंदोलन प्रारंभ में आर्थिक स्वरूप लिए था किंतु कालांतर में साम्प्रदायिक रंग प्राप्त करने लगा। मेवों ने हिन्दुओं के घरों की सम्पति लूटना शुरु कर दिया था। ब्रिटिश सरकार के हस्तक्षेप से आंदोलन पर नियंत्रण पाया गया। महाराजा जयसिंह को देश निकाला दे दिया।

बूंदी किसान आंदोलन :

बूंदी में बरड़ क्षेत्र के किसानों ने जागीर प्रशासन के विरुद्ध आंदोलन न करके बूंदी राज्य प्रशासन के विरुद्ध किया। बूंदी व बिजौलिया के बीच पथरीला व कठोर भाग बरड़ कहलाता था। बूंदी आंदोलन का नेतृत्व प.नयनूराम शर्मा ने किया। तरुण राजस्थान, नवीन राजस्थान (अजमेर), राजस्थान केसरी (वर्धा), प्रताप आदि समाचार पत्रों में आंदोलनकारियों पर किए जुल्मों का व्यापक रूप से प्रचार किया। 2 अप्रैल,1923 में ई बूंदी में डाबी नामक स्थान पर किसानों की सभा पर पुलिस अधीक्षक इकराम हुसैन ने गोली चला दी जिसमें मानक जी भील व देवीलाल गुर्जर घटना स्थल पर ही झण्डा गीत गाते हुए शहीद हो गए। माणिक्यलाल वर्मा ने नानक भील की स्मृति में 'अर्जी' शीर्षक से गीत लिखा।

गुर्जरी का आंदोलन (1936-45 ई.)

यह आंदोलन सर्वप्रथम बरड़ क्षेत्र से आरंभ हुआ। नुक्ता (मृत्यु भोज) पर प्रतिबंध, पशुगिनती, भारी राजस्व की दर व गैर कानूनी लोगों के विरोध में आंदोलन प्रारंभ हुआ। इन कारणों को लेकर 5 अक्टूबर, 1936 को हिण्डौली में हुडेश्वर महादेव के मंदिर पर गुर्जर, मीणा व अन्य पशुपालकों व किसानो की एक सभा हुयी। 21 अक्टूबर, 1936 को बूंदी सरकार ने अपराध कानून संशोधन अधिनियम 1936 पारित किया। 1939 ई. में पुन: गुर्जरों का आंदोलन लाखेरी (बूंदी) में आरम्भ हुआ। 3 सितम्बर, 1939 को गुर्जरों ने लाखेरी में तोरण की बावड़ी पर एक सभा की जिसमें भंवरलाल जमादार, गोवर्धन चौकीदार व सीमेण्ट फैक्ट्री के एक कर्मचारी राम निवास तम्बोली ने इसमें नेतृत्वकारी भूमिका निभाई। मार्च,1945 तक शुल्क मुफ्त चराई की छूट किसानों की जोत के अनुपात में प्रदान की और आंदोलन शांत किया। बीकानेर किसान आंदोलन

(i) गंग नहर क्षेत्र का किसान आंदोलन - 

बीकानेर के गंग नहर के किसानों में पानी की मात्रा, सिंचाई कर, जमीनों की किश्ते चुकाने एवं चढ़ी रकम पर ब्याज को लेकर असंतोष था। 1921 ई. में जमींदार संघ की स्थापना की एवं अपनी मांगों के संबंध में राज्य सरकार को प्रार्थना पत्र दिए। बीकानेर महाराजा गंगासिंह स्वयं नहरी क्षेत्र का विकास करना चाहते थे अत: लगान व पानी की दरो में छूट दी गई।

(ii) महाजन ठिकाने का किसान आंदोलन:

बीकानेर राज्य के महाजन ठिकाने के किसान अनुचित लागतों, बेगार व भू राजस्व संबंधी मांगे नहीं मानने तक लगान नहीं देने का निर्णय लिया। राज्यधिकारियों की मध्यस्था से लगान में कमी करने से महाजन ठिकाने का आंदोलन शिथिल हो गया।

दुधवाखारा (चुरु) का किसान आंदोलन

1944 ई. में जागीरदार ठाकुर सुरजमल सिंह ने पुराने बकाया की वसुली के नाम पर किसानों को उनकी जोत से बेदखल कर दिया। आंदोलन का नेतृत्व मघाराम वैद्य, रघुवर दयाल तथा हनुमान सिंह आर्य ने किया खेतूबाई ने दुधवाखारा आंदोलन में महिलाओं का नेतृत्व किया। हनुमान सिंह को रतनगढ़ में गिरफ्तार कर उनके विरुद्ध राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया।

मारवाड़ किसान आंदोलन

मारवाड़ राज्य द्वारा 29 अक्टूबर, 1923 को मादा पशुओं के निर्यात पर प्रतिबंध हटाने से मारवाड़ से बड़ी संख्या में पशु बाहर आने लगे। किसानों ने इसका विरोध किया। हितकारिणी सभा व जयनारायण व्यास ने किसानों का नेतृत्व किया 1 सितम्बर, 1924 को पशुओं एवं घास-फूस के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया। यह मारवाड़ के किसानों की विजय थी। जुलाई 1931 को खालसा क्षेत्र के किसानों ने भी बीघोड़ी (प्रति बीघा भू-राजस्व के रूप में वसूला जाने वाला राज्य का हिस्सा) के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया।

 किसानों के आंदोलन के जोर पकडने पर 16 जून 1934 को बीघोड़ी में प्रति एक रूपये पर तीन आने की कमी कर दी गई जिससे खालसा क्षेत्र में किसान आंदोलन समाप्त हो गया। 28 मार्च, 1942 को चण्डावल में उत्तरदायी शासन दिवस मनाने एकत्र हुए किसानों पर जागीरदार ने दमन चक्र चलाया। गाँधीजी ने भी इस नृशंस कृत्य की आलोचना की। 13 मार्च, 1947 को मारवाड़ लोक परिषद् ने डाबड़ा (डीडवना) में एक किसान सम्मलेन में जागीरदार के सशस्त्र लोगो ने हमला कर दिया जिससे 12 व्यक्ति मारे गए। डाबडा काण्ड की 'वंदेमातरम्' 'लोकवाणी' प्रजा सेवक आदि समाचार पत्रों ने कड़ी आलोचना की। 

शेखावाटी किसान आंदोलन

आंदोलन का प्रारंभ सीकर ठिकाने के नये राव राजा कल्याणसिंह द्वारा 25 से 50 प्रतिशत तक भू-राजस्व में वृद्धि करने से हुआ। राजस्थान सेवा संघ के मंत्री रामनारायण चौधरी के नेतृत्व में किसानों ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई। लंदन में प्रकाशित 'डेली हेराल्ड' नामक समाचार पत्र में किसानों के समर्थन में लेख छपे। 1925 ई. में ब्रिटिश संसद के के नीचले सदन 'हाउस ऑफ कॉमन्स' में लिचेस्टर (पश्चिम) से लेबर पार्टी के सदस्य सर पैथिक लॉरेन्स ने किसानो के समर्थन में आवाज उठायी। 1931 ई. में ठाकुर देशराज ने 'जाट क्षेत्रीय सभा' की स्थापना की। किसानों को धार्मिक आधार पर संगठित करने के लिए 'ठाकुर देशराज' ने मथैना में एक सभा कर " जाट प्रजापति महायज्ञ" करने का निश्चय किया। 

बसंत पंचमी 20 जनवरी, 1934 को सीकर में यज्ञाचार्य प. खेमराज शर्मा की देखरेख में यज्ञ आरम्भ हुआ। यज्ञपति कुंवर हुक्मसिंह को हाथी पर बैठाकर जुलूस निकाला। सिहोट के ठाकुर मानसिंह द्वारा 'सोतिया का बास' नामक गांव में किसान महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार के विरोध में 25 अप्रैल, 1934 को कटराथल नामक स्थान पर श्रीमति किशोरी देवी की अध्यक्षता में विशाल महिला सम्मलेन आयोजित हुआ। शेखावाटी क्षेत्र की पांच बड़ी जागीरें नवलगढ़, मंडावा, डुण्डलोद, बिसाऊ व मलसीसर थे। इनको 'पंच पाणे' कहते थे। 1934 ई. में ठाकुर ईश्वरी सिंह ने जयपुर के जयसिंह पुरा गांव में किसानों पर गोलियां चलायी जिसे जयसिंहपुरा किसान हत्याकाण्ड के नाम से जानते हैं। ईश्वरी सिंह व साथियो पर मुकदमा चलाकर सजा दी। जयपुर राज्य में यह प्रथम मुकदमा था जिसमें जाट किसानों के हत्यारों को सजा दिलाना संभव हुआ। सीकर ठिकाने के विशेष अधिकारी वैब ने अप्रैल 1935 ई. को कुदन व गोठडा भूकरान गांवो पर नरसंहार किया। कुदन गांव का हत्याकाण्ड इतना विभत्स था कि ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ कॉमन्स में भी इस पर भी चर्चा हुई। 26 मई, 1935 को सीकर दिवस मनाया गया।

मेवाड़ जाट किसान आंदोलन

महाराणा फतेह सिंह ने शासनकाल में 22 जून, 1880 को चित्तौड़ के रश्मि परगना में मातृकुण्डिया में आंदोलन हुआ। कारण – जाट किसानों ने नई भू-राजस्व व्यवस्था के विरुद्ध प्रदर्शन किया।


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